एक बार की बात है गर्मियों के दिन थे दिन का तीसरा पहर बित रहा था सूर्य की किरणें आग के समान पड रही थी| सभी जिव –जन्तुओ का बुरा हाल था |पेड़ पौधे तक गरमी से झुलस रहे थे
उज्जैन के चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य तथा महाकवि कालिदास दरबार में विद्यमान थे शेष नवरत्न अपने –अपने घरो की ओर जा चुके थे ये वही विक्रमादित्य थे जो अपने न्याय तथा वीरता के लिए आज भी जाने जाते है|तथा महाकवि कालीदास उन्हें कौन नहीं जनता ?उन्होंने ही मेघदूत ,रघुवंश ,और शकुन्तला ,जैसे प्रसिद्ध ग्रंथो की रचना की थी |
राजा विक्रमादित्य और कालिदास दोनों गरमी से परेशान थे दोनों के शरीर पसीने से लथपथ थे सेवक पंखा झल रहे थे किन्तु पसीना रुकने का नाम नही ले रहा था सेवक उनका पसीना पोछ रहे थे
प्यास के मारे बार बार कंठ सुख रहा था दोनों के पास मिटटी की एक सुराही रखी हुई थी प्यास बुझाने के लिए उन्हें बार बार पानी पीना पड रहा था सुराही के ठन्डे पानी को पीकर उन्हें कुछ क्षण के लिए राहत मिल जाती थी
राजा विक्रमादित्य अत्यधिक सुंदर थे वे जितना सुंदर थे ,महाकवि कालिदास उतने ही कुरूप! गरमी और पसीने की बूंदे ओस की तरह चमक थी |
राजा विक्रमादित्य का कालिदास के प्रति मित्रवत व्यवहार था दोनों में प्राय:नोक झोक चला करती थी एक –दुसरे को मुर्ख बनाने का अवसर दोनों ही खोजते रहते थे विक्रमादित्य किसी अवसर को गवाना नही चाहते थे पर महाकवि कालिदास भी उन्हें करारा उत्तर दे देते थे होता यह था कि पहल राजा करते थे और अंत में माहाकवि उन्हें मुर्ख बना देते थे |
अचानक विक्रमादित्य का ध्यान महाकवि के कुरूप मुख पर गया उन्हें मुर्ख बनाने के लिए राजा मचल उठे वे बोले महाकवि इसमें कोई संदेह नही कि आप विश्व के सबसे विद्वान चतुर तथा गुणी व्यक्ति है किन्तु साथ –साथ यदि ईश्वर ने आपको सुंदर रूप भी दिया होता तो कितना अच्छा होता ?भगवन ने आखिर ऐसा क्यों नही किया ?
“महाराज इसका उत्तर मै आपको आज नही कल दूंगा” कालिदास ने कहा संध्या होते ही कालिदास दरबार से सीधे सुनार के घर गए उन्होंने सुनार को रातो रात सोने की अति सुंदर सुराही तैयार करने का आदेश दिया और घर लौट आए दुसरे दिन दरबार लगने से पहले ही कालिदास वहा जा पहुंचे उन्होंने राजा की मिटटी की सुराही हटाकर उसके स्थान पर सोने की सुंदर सुराही पहले की तरह रख दी
ठीक समय पर दरबान ने आवाज लगाई “जंबुद्वीप –अधिपति महाराजाधिराज विक्रमादित्य पधार रहे है “राजा अपने अंगरक्षको के साथ दरबार में पधारे सभी सभासदों ,नवरत्नों,तथा गणमान्य व्यक्ति ने उठकर उनका स्वागत किया राजा के सिन्हासन पर बैठते ही सभी ने अपने –अपने आसन ग्रहण किए
आज भी गरमी का कहर बरस रहा था पंखे जोर से झले जा रहे थे किन्तु हवा भी गरम थी कार्यवाही प्रारम्भ होने से पहले ही महाराज को प्यास लगी उन्होंने पानी के लिए इशारा किया
एक सेवक ने उनकी सुराही से पानी निकाल कर गिलास भरा पानी होटो से लगाते ही महाराज सेवक पर क्रोधित हो गए वे क्रोधपूर्वक बोले “क्या सुराही में उबला हुआ पानी भरा है?”सेवक थर थर काँपने लगा कालिदास ने तुरंत सुराही से कपडा हटाया सोने की सुराही की चमक देखकर सभी दंग रह गए यह क्या सुराही सोने की है
सभी सुराही की सुन्दरता का गुणगान करने लगे कोई असली सोने की तारीफ करता तो कोई उनकी बनावट और गढ़ाई की
विक्रमादित्य का क्रोध थमा नही वह बोले पानी भी कही सोने की सुराही में रखा जाता है ?
कहा गई मिटटी की सुराही ?सोने की सुराही यहाँ किस मुर्ख ने रखी थी?
पास खड़े हुए कालिदास ने कहा “क्षमा करे महाराज वह मुर्ख मै ही हूँ मैंने ही सोने की सुराही यहाँ रखी थी
महाकवि आप?माहराज आश्चर्य से बोले
हां महाराज यह मैंने ही रखी थी सुराही बेहद बदसूरत और गंदी लग रही थी मैंने सोचा की सुन्दरता के पुजारी के पास बदसूरत सुराही किस मुर्ख ने रखवाई है इसलिए उसे हटाकर उसके स्थान पर असली सोने की सुंदर सुराही रख दी क्या आपको पसंद नहीं आई महाराज?इतना कहकर वे चुप हो गए
महाकवि कालिदास का व्यंग महाराज समझ गए उन्होंने तुरंत महाकवि से माफ़ी मांगी
कहानी की सिख – किसी भी व्यक्ति के गुणों का महत्व होता है न की उसके रंग या रूप का