इसके पीछे है एक कहानी भी:
प्राचीन काल में राजा दुष्यंत एक परम शक्तिशाली प्रतापी राजा हुआ करते थे वह एक बार कण्व ऋषि के दर्शन करने के लिए महाराज दुष्यंत उनके आश्रम पहुँच गए। पुकार लगाने पर एक अति लावण्यमयी कन्या ने आश्रम से निकल कर कहा, “हे राजन्! महर्षि तो तीर्थ यात्रा पर गये हैं, किन्तु आपका इस आश्रम में स्वागत है।” उस कन्या को देख कर महाराज दुष्यंत ने पूछा, “बालिके! आप कौन हैं?” बालिका ने कहा, “मेरा नाम शकुन्तला है और मैं कण्व ऋषि की पुत्री हूँ।” उस कन्या की बात सुन कर महाराज दुष्यंत आश्चर्यचकित होकर बोले, “महर्षि तो आजन्म ब्रह्मचारी हैं फिर आप उनकी पुत्री कैसे हईं?” उनके इस प्रश्न के उत्तर में शकुन्तला ने कहा, “वास्तव में मेरे माता-पिता मेनका और विश्वामित्र हैं। मेरी माता ने मेरे जन्म होते ही मुझे वन में छोड़ दिया था जहाँ पर शकुन्त नामक पक्षी ने मेरी रक्षा की। इसी लिये मेरा नाम शकुन्तला पड़ा। उसके बाद कण्व ऋषि की दृष्टि मुझ पर पड़ी और वे मुझे अपने आश्रम में ले आए। उन्होंने ही मेरा भरन-पोषण किया। जन्म देने वाला, पोषण करने वाला तथा अन्न देने वाला – ये तीनों ही पिता कहे जाते हैं। इस प्रकार कण्व ऋषि मेरे पिता हुए”
शकुन्तला के वचनों को सुनकर महाराज दुष्यंत ने कहा, “शकुन्तले! तुम क्षत्रिय कन्या हो। तुम्हारे सौन्दर्य को देख कर मैं अपना हृदय तुम्हें अर्पित कर चुका हूँ। यदि तुम्हें किसी प्रकार की आपत्ति न हो तो मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूँ।
फिर सदाचारिणी कन्या ने राजा से महर्षि के आने तक प्रतीक्षा करने को कहा जिस पर राजा ने उन आठ प्रकार के विवाहों का वर्णन सुन्दरी शकुन्तला के समक्ष किया क्षत्रिय राजा दुष्यंत धर्म के ज्ञाता थे इसीलिए गन्धर्व विवाह के प्रस्ताव का स्मरण करा कर उन्होंने शकुन्तला को विवाह धर्मसंगत बताया और यह भी कहा कि ऋषि कण्व भी इस विवाह को धर्मानुसार मानकर स्वीकार करेंगे।
” शकुन्तला भी महाराज दुष्यंत पर मोहित हो चुकी थी, अतः उसने अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। दोनों नें गन्धर्व विवाह कर लिया।
कुछ काल महाराज दुष्यंत ने शकुन्तला के साथ वन में ही व्यतीत किया। फिर एक दिन महाराज शकुन्तला से बोले, “प्रियतमे! मुझे अब अपना राजकार्य देखने के लिए हस्तिनापुर प्रस्थान करना होगा।
महर्षि कण्व के तीर्थ यात्रा से लौट आने पर मैं तुम्हें यहाँ से विदा करा कर अपने राजभवन में ले जाउँगा।” इतना कहकर महाराज ने शकुन्तला को अपने प्रेम के प्रतीक के रूप में अपनी स्वर्ण मुद्रिका दी और हस्तिनापुर चले गए।