बात बहुत पुरानी है। एक बार एक संत ने जन कल्याण हेतु एक योजना आरंभ की। इस योजना को पूरा करने के लिए तन मन और धन तीनो की ही आवश्यकता थी। संत महाराज के सभी शिष्य अपने गुरु की इस योजना को पूरा करने में जुट गए थे। बस अब जरूरत थी तो धन के लिए दानियों की। अतः सभी शिष्यों ने मिलकर दानियों को खोजना शुरू कर दिया।
एक दिन एक शिष्य कलकत्ता के एक दानवीर सेठ को अपने गुरु जी से मिलवाने ले गया।गुरु जी को नमस्कार कर सेठ ने कहा – महाराज मैं आपके इस जन कल्याण कार्य मे अपना योगदान देना चाहता हूं। मैं आपके इस कार्य के लिए भवन निर्माण करना चाहता हूं। किन्तु मेरी एक इच्छा है कि भवन के प्रत्येक कमरे के आगे मेरे परिवार के सदस्यों के नाम लिखें जाएंगे।इसके लिए मैं दान की रकम और नाम की सूची संग लाया हूं। ये कहते हुए सेठ ने दान की पोटली गुरु जी के सामने रख दी।
-गुरु जी अपने शिष्य को डांटते हुए तीखे स्वर में बोले: अरे अज्ञानी ये तू किसे अपने साथ ले आया। यह मानव तो अपनो के नाम का कब्रिस्तान बनवाना चाहता है।
तब गुरु जी ने अपने शिष्य को समझाते हुए कहा – दान जब तक निःस्वार्थ भाव से न किया जाएं, वह स्वीकार्य नही होता।
“दान देने को उपकार समझना, असल में वह दान नहीं है।’’