Vishnu Bhagwan and Narad Muni Story: एक बार नारद जी बड़ी ही दुविधा में सोच-विचार करते हुए भगवान विष्णु के धाम पहुंचे। जहाँ प्रभु शेषनाग शैय्या पर विश्राम अवस्था में विराजमान थे।
“प्रभु आपकी माया क्या हैं? मैं जानना चाहता हूं। भू लोक पर प्रत्येक मनुष्य आपकी माया से प्रेरित हो दुःख अथवा सुख भोगता है। लेकिन वास्तव में आपकी माया क्या हैं? मुझे बताएं प्रभु!”, नारद जी ने प्रभु से कहा।
श्री विष्णु भगवान बोले, “नारद! यदि तुम्हें मेरी माया जाननी ही है तो उसके लिए तुम्हें मेरे साथ पृथ्वीलोक चलना होगा। जहां मैं अपनी माया का प्रत्यक्ष प्रमाण तुम्हें दे सकता हूँ।”
भगवान विष्णु नारद को ले पहुंचे एक विशाल रेगिस्तान में जहाँ दूर-दूर तक कोई मनुष्य तो क्या जीव-जंतु भी दिखाई नहीं पड़ रहा था।
नारद जी विष्णु भगवान के पीछे-2 रेगिस्तान की गर्म रेत को पार करते हुए आगे बढ़ते रहे। चलते-2 नारद जी को मनुष्य की ही भाती गर्मी और भूख प्यास का एहसास होने लगा।
तब नारद जी ने कहा – “प्रभु!, चलते-चलते बहुत देर हो गई लेकिन आपकी माया क्या है? यह आपने अभी तक नहीं समझाया।”
अभी थोड़ा और चलना है, नारद। यह कहते हुए प्रभु आगे बढ़ चले।
बहुत अधिक आगे चलने पर भी जब प्रभु की और से रुकने का कोई संकेत न मिला। बस फिर तो नारद जी व्याकुल हो उठे।
प्रभु ने कहा – ठीक है। चलो आगे पहले जल की व्यवस्था करते है।
कुछ दूर चलने पर एक छोटी सी नदी दिखाई पड़ी जिसको देखकर नारद जी तेजी से अपने कदम बढ़ाते हुए नदी के एक किनारे पर पहुंच गए।
नारद मुनि प्रभु की आज्ञा ले, उतर गए नदी में अपनी प्यास बुझाने के लिए। लेकिन प्रभु वही नदी के किनारे बैठकर ये सब नज़ारा देख रहे थे।
जैसे ही नारद मुनि ने नदी में उतरकर पानी पीना शुरू किया तभी उन्हें कुछ दूर एक सुंदर कन्या दिखाई दी। जिसके रूप को देखकर नारदमुनि उस कन्या पर मोहित हो गए। और समीप जाकर इस वीरान जगह पर आने का कारण पूछने लगे। कन्या ने बताया कि वह समीप के ही एक नगर की राजकुमारी है और अपने कुछ सैनिकों के साथ रास्ता भटक गयी है। नारद मुनि राजकुमारी के साथ उसके राज्य में पहुंच जाते हैं। राजकुमारी सब हाल अपने पिता से बताती है।
राजा प्रसन्न होकर अपनी पुत्री का विवाह नारद जी से कर देते हैं और सारा राजपाठ नारदमुनि को सौप स्वयं सन्यासी बन जाते है। अब तो नारद मुनि महाराज हो गए। मंत्रियों और दरबारियों के साथ पूरा-दिन महाराज नारद व्यस्त रहने लगे समय पर घोड़ा, गाड़ी तरह-तरह के पकवान दास-दसिया हाजिर रहते। नारद इन सब में यह भी भूल चुके थे कि वह प्रभु को नदी किनारे बैठा ही छोड़ आये। समय बीतता गया नारद को उस राजकुमारी से दो संताने भी हो गयी। नारद मुनि अपने फलते-फूलते राज्य और पुत्रों को देखकर बहुत ही प्रसन्न रहते थे।
एक दिन घनघोर वर्षा हुई 3 दिन तक इतना जल बरसा की पूरे राज्य में बाढ़ आ गयी। राज्य के सब लोग इधर-उधर भागने लगे। महाराज नारद भी एक नाव में अपनी पत्नी और दोनों बच्चों को लेकर सुरक्षित स्थान की खोज में चल दिये। बाढ़ इतना भयानक रूप ले चुकी थी कि राज्य से निकलते हुए नारद की पत्नी नाव से नीचे गिर गयी और तेज बहाव के साथ ही बह गयी। नारद शोक करते हुए जैसे-तैसे राज्य से बाहर उसी नदी में आ पहुंचे जहां नारद जी प्रभु के साथ अपनी प्यास बुझाने के लिए आये थे।
तभी अचानक दोनों बच्चे भी नदी में डूबकर मर जाते है। नारद मुनि नदी के किनारे पर बैठकर शौक करते हुए जोर-जोर से रोने लगते है। मेरे बच्चे, पत्नी सब कुछ तो नष्ट हो गया। अब मैं इस जीवन को जीकर क्या करूँगा। जैसे ही नारदमुनि नदी में कूदने की कोशिश करते है तभी भगवान विष्णु उनका हाथ पकड़ लेते है। अरे अरे, जरा ठहरो नारद!। ये ही तो थी मेरी माया। जो अब तक तुम्हारे साथ घटित हुआ वह सब मेरी ही माया थी।
अब नारदमुनि भली-भाती समझ जाते है कि पत्नी बच्चे, राज्य, बाढ़ वह सब केवल प्रभु की ही माया थी।
नारदमुनि प्रभु से हाथ जोड़कर बोले- “ मैं जान गया आपकी माया को इस पृथ्वी पर जो भी होता है वह सब आपकी माया ही तो है। अब कृपा कर अपने धाम चलने की आज्ञा दीजिये, प्रभु!”